शिव का रूप विचित्र अमंगल है। नंग – धड़ंग,
शरीर पर राख मले, जटाजूटधारी, सर्प लपेटे, गले में हडिडयों एवं नरमूंडों की
माला और जिसके भूत – प्रेत, पिशाच आदि गण हैं। ये औघड़दानी सभी के लिए
सुगम्य थे। देव तथ असुर सभी को बिना सोचे – समझे वरदान दे बैठते। एक बार
भस्मासुर ने वरदान प्राप्त कर लिया कि वह जिसके ऊपर हाथ रखे वह भस्म हो
जाय। तब यह सोचकर कि शिव कहीं दूसरे को ऐसा वरदान न दें, वह उन्हीं पर हाथ
रखने दौड़ा । शिव सारे संसार में भागते फिरे। अंत में भगवान् सुंदरी
‘तिलोत्तमा’ का रूप धरकर नृत्य करने लगे। भस्मासुर मोहित होकर साथ में
उसी प्रकार नाचने लगा। तिलोत्तमा ने नृत्य की मुद्रा में अपने सिर पर हाथ
रखा, दूसरा हाथ कटि पर रखना नृत्य की साधारण प्रारंभिक मुद्रा है।
भस्मासुर ने नकल करते हुए जैसे ही हाथ अपने सिर पर रख, वह स्वयं वरदान के
अनुसार भस्म हो गया। शायद किसी असुर ने अग्नि के ऊपर यांत्रिक सिद्धि
प्राप्त की और उससे संहारक शक्ति को नष्ट करने की सोची। पर संहारक शक्ति
को नष्ट करने की सोची। पर संहारक शक्ति को इस प्रकार नष्ट नहीं किया जा
सकता और वह स्वयं नष्ट हो गया। शिव का उक्त रूप उस समय के सभी
अंधविश्वासों से युक्त सामान्य लोगों का प्रतीक है। असुर भी शिव के
उपासक थे। संभ्वतया समाज – मंथन के समय साधारण लोगों को तुष्ट करने के
लिए उनके रूप में ढले ‘रूद्र’ को ‘महादेव’ तथा ‘महेश’ कहकर पुकारने लगे। इस
प्रकार ‘महा’ उपसर्ग लगाकर संतुष्ट करने का एक एंग है। कुछ पुरातत्वज्ञ
यह मानते हैं कि शंकर दक्षिण के देवता थे, इसीलिए घोषित किया गया कि वह
कैलास पर रम रहे। पार्वती उत्तर हिमालय की कन्या थी। उसने शिव की
प्राप्ति के लिए कन्याकुमारी जाकर तपस्या की। आज भी कुमारी अंतरीप में,
जहॉ सागर की ओर मुंह करके खड़े होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, उनकी
मूर्ति उत्तर की, अपने आराध्य देव कैलास आसीन शिव की ओर मुंह करके खड़ी
है। यह भरत की एकता का प्रतीक है। मानो शिव – पार्वती की विवाह से दक्षिण –
उत्तर भारत एक हो गया।
शिव का चिन्ह मानकर शिवलिंग की पूजा बुद्ध के कालखंड के पूर्व आई । वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यक्ति जिस चिन्ह की पूजा कर सकें,उस पत्थर के ढेले, बटिया को शिव का चिन्ह माना। विक्रम संवत् के कुछ सहस्राब्दी पूर्व उक्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदि मानव को यह रूद्र का आविर्भाव दिखा। शिव पुरण के अनुसार उस समय आकाश से ज्योति पिंड पृथ्वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया । यही उल्का पिंड बारह ज्योतिर्लिंग कहलाए। इसी कारण उल्का पिंड से आकार में मिलती बटिया रूद्र या शिव का प्रतीक बनी।
किंवदंती है कि शिव का पहला विवाह दक्ष प्रजापति की कन्या सती से हुआ था। प्रजापतियों के यज्ञ में दक्ष ने घमंड में शाप दिया,
शिव का चिन्ह मानकर शिवलिंग की पूजा बुद्ध के कालखंड के पूर्व आई । वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यक्ति जिस चिन्ह की पूजा कर सकें,उस पत्थर के ढेले, बटिया को शिव का चिन्ह माना। विक्रम संवत् के कुछ सहस्राब्दी पूर्व उक्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदि मानव को यह रूद्र का आविर्भाव दिखा। शिव पुरण के अनुसार उस समय आकाश से ज्योति पिंड पृथ्वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया । यही उल्का पिंड बारह ज्योतिर्लिंग कहलाए। इसी कारण उल्का पिंड से आकार में मिलती बटिया रूद्र या शिव का प्रतीक बनी।
किंवदंती है कि शिव का पहला विवाह दक्ष प्रजापति की कन्या सती से हुआ था। प्रजापतियों के यज्ञ में दक्ष ने घमंड में शाप दिया,
'अब इंद्रादि देवताओं के साथ इसे यज्ञ का भाग न मिले।'
और क्रोध में चले गये। तब नंदी (शिव के वाहन) ने दक्ष को शाप देने के साथ-साथ यज्ञकर्ता ब्राम्हणों को, जो दक्ष की बातें सुनकर हँसे थे, शाप दिया,
'जो कर्मकांडी ब्राम्हण दक्ष के पीछे चलने वाले हैं वे केवल पेट पालने के लिए विद्या, तप, व्रतादि का आश्रय लें तथा धन, शरीर और इंद्रिय-सुख को ही सुख मानकर इन्हीं के गुलाम बनकर दुनिया में भीख मांगते भटकें।'
इस पर भृगु ने शाप दिया,
'जो शौचाचारविहीन, मंदबुद्वि तथा जटा, राख और हड्डियों को धारण करने वाले हों वे ही शैव संप्रदाय में दीक्षित हों, जिनमें सुरा और आसव देवता समान आदरणीय हों। तुम पाखंड मार्ग में जाओ, जिनमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं।'
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